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उ॒त दा॒सस्य॑ व॒र्चिनः॑ स॒हस्रा॑णि श॒ताव॑धीः। अधि॒ पञ्च॑ प्र॒धीँरि॑व ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta dāsasya varcinaḥ sahasrāṇi śatāvadhīḥ | adhi pañca pradhīm̐r iva ||

पद पाठ

उ॒त। दा॒सस्य॑। व॒र्चिनः॑। स॒हस्रा॑णि। श॒ता। अ॒व॒धीः॒। अधि॑। पञ्च॑। प्र॒धीन्ऽइ॑व ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:30» मन्त्र:15 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप (प्रधीनिव) चक्र में स्थित पैनी कीलों के सदृश वर्त्तमान संसार में कण्टक दुष्टों को (पञ्च) पाँच (शता) सौ वा (सहस्राणि) सहस्रों दुष्टों का (अधि, अवधीः) नाश करो (उत) और (वर्चिनः) बहुत पढ़े हुए (दासस्य) सेवक के जनों को पालिये ॥१५॥
भावार्थभाषाः - वह राजा जो राजमान राजपुरुषों से यदि दुष्टों का निवारण करके श्रेष्ठों का सत्कार करे तो सम्पूर्ण जगत् उसका सेवक होवे ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजंस्त्वं प्रधीनिव वर्त्तमानान् पञ्च शता सहस्राणि दुष्टानध्यवधीरुतापि वर्चिनो दासस्य जनान् पालय ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (दासस्य) सेवकस्य (वर्चिनः) बह्वधीतस्य (सहस्राणि) असंख्यानि (शता) शतानि (अवधीः) हन्याः (अधि) (पञ्च) (प्रधीनिव) चक्रस्थानि तीक्ष्णानि कीलकानीव वर्त्तमानान् जगत्कण्टकान् दुष्टान् ॥१५॥
भावार्थभाषाः - स राजभी राजपुरुषैर्यदि दुष्टान्निवार्य्य श्रेष्ठान् सत्कुर्य्यात्तर्हि सर्वं जगत् तस्य सेवकं भवेत् ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने राजपुरुषाद्वारे जर दुष्टांचे निवारण करून श्रेष्ठांचा सत्कार केला तर संपूर्ण जग त्याचे सेवक बनेल. ॥ १५ ॥